चार्जशीट दाख़िल करना: जब भी किसी व्यक्ति के विरुद्ध अपराध की रिपोर्ट दर्ज होती है और पुलिस जांच प्रारंभ करती है, तो अगला सबसे महत्वपूर्ण चरण होता है चार्जशीट (Chargesheet) का दाख़िल किया जाना।

यह दस्तावेज़ न्यायिक प्रक्रिया में मील का पत्थर माना जाता है क्योंकि इसके आधार पर ही अदालत यह तय करती है कि किसी आरोपी के खिलाफ मुकदमा चलेगा या नहीं।
चार्जशीट को लेकर अक्सर आम जनता के मन में यह सवाल रहता है कि पुलिस कितने दिन में चार्जशीट दाख़िल करती है? इस खबर में हम आपको बताएंगे कि चार्जशीट की समयसीमा क्या होती है, इसके पीछे का कानूनी आधार क्या है, इसमें देरी होने पर क्या होता है, और आम नागरिकों को क्या अधिकार प्राप्त हैं।
टीपू सुल्तान
क्राइम एपिसोड
चार्जशीट दाख़िल करना और चार्जशीट क्या होती है?
चार्जशीट एक औपचारिक दस्तावेज़ होता है, जिसे पुलिस किसी आरोपी के खिलाफ जांच पूरी होने के बाद अदालत में प्रस्तुत करती है। इसमें निम्नलिखित बिंदुओं का उल्लेख होता है:
अपराध की प्रकृति
आरोपी के खिलाफ एकत्रित सबूत
गवाहों के बयान
अपराध की जगह और समय
लागू धाराएं (Sections of IPC or Special Acts)
चार्जशीट दाख़िल करना यह दर्शाता है कि पुलिस को आरोपी के खिलाफ पर्याप्त सबूत मिले हैं जिससे न्यायालय में मुकदमा चलाया जा सके।
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चार्जशीट दाख़िल करने की कानूनी समय-सीमा
भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता (Criminal Procedure Code – CrPC), 1973 की धारा 167 के तहत यह स्पष्ट किया गया है कि पुलिस को चार्जशीट दाख़िल करने की एक निश्चित समय-सीमा के भीतर जांच पूरी करनी होती है, विशेषकर जब आरोपी न्यायिक हिरासत (judicial custody) में हो।
गंभीर अपराध (जहां सजा 10 वर्ष या अधिक है)
90 दिन के भीतर चार्जशीट दाख़िल करनी अनिवार्य होती है।
उदाहरण: हत्या, डकैती, बलात्कार, आतंकवाद से जुड़े अपराध, NDPS के गंभीर मामले आदि।
साधारण अपराध (जहां सजा 10 वर्ष से कम है)
60 दिन के भीतर चार्जशीट दाख़िल करनी होती है।
उदाहरण: चोरी, सादा मारपीट, धोखाधड़ी, जालसाज़ी आदि।
अगर पुलिस इस निर्धारित समय में चार्जशीट दाख़िल नहीं कर पाती है, तो आरोपी को डिफॉल्ट बेल (Default Bail) का अधिकार मिल जाता है, जिसे भारतीय न्याय प्रणाली में मौलिक अधिकार माना जाता है।
विशेष कानूनों में चार्जशीट की समय-सीमा
कुछ विशिष्ट कानूनों में यह समय सीमा अलग हो सकती है:
कानून समय सीमा टिप्पणी
NDPS Act (नारकोटिक्स) 180 दिन (विशेष अनुमति पर 1 साल) गंभीर ड्रग मामलों में
UAPA (Unlawful Activities Prevention Act) 180 दिन आतंकवाद संबंधित मामलों में
POCSO Act 90 दिन बच्चों से संबंधित यौन अपराधों में
इन मामलों में जांच एजेंसी अदालत की अनुमति से समय सीमा बढ़ा सकती है।
चार्जशीट दाख़िल होने के बाद की प्रक्रिया
अदालत में प्रस्तुतिकरण:
पुलिस चार्जशीट को मजिस्ट्रेट या सेशन कोर्ट में जमा करती है।
कोर्ट का संज्ञान (Cognizance):
न्यायाधीश यह तय करते हैं कि अभियोजन प्रारंभ किया जा सकता है या नहीं।
आरोपी की पेशी और सुनवाई:
आरोपी को पेश किया जाता है और अभियोजन की प्रक्रिया आरंभ होती है।
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चार्जशीट दाख़िल न होने की स्थिति में आरोपी के अधिकार
अगर 60 या 90 दिनों की तय अवधि में चार्जशीट दाख़िल नहीं होती है और आरोपी जेल में है, तो उसे डिफॉल्ट जमानत (Statutory Bail) का कानूनी अधिकार प्राप्त है। सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों में यह स्पष्ट किया गया है कि यह अधिकार अनिवार्य और मौलिक है।
चार्जशीट में देरी के कारण
कई बार चार्जशीट दाख़िल करने में देरी के पीछे निम्न कारण हो सकते हैं:
तकनीकी जांच (जैसे- फ़ॉरेंसिक रिपोर्ट का इंतजार)
गवाहों के बयान अधूरे रह जाना
अंतरराज्यीय या अंतरराष्ट्रीय लिंक
विशेष अनुमति द्वारा जांच समय बढ़ाना
हालांकि, कानून व्यवस्था का उद्देश्य यह है कि जांच समय से हो और न्याय में अनावश्यक देरी न हो।
ई-चार्जशीट की पहल
भारत सरकार और कई राज्य सरकारें अब ई-चार्जशीट प्रणाली को लागू कर रही हैं, जिससे चार्जशीट ऑनलाइन अदालत में जमा की जा सके और जांच की पारदर्शिता तथा गति में सुधार हो सके। इससे प्रक्रिया और अधिक समयबद्ध हो गई है।

पुलिस की ज़िम्मेदारी और न्याय में बाधा
चार्जशीट दाख़िल करना भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली की रीढ़ है। यह न केवल आरोपी के खिलाफ न्यायिक प्रक्रिया को गति देता है, बल्कि पीड़ितों को भी न्याय मिलने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम होता है।
जनता को यह जानना जरूरी है कि अगर कोई आरोपी जेल में है और पुलिस समय-सीमा में चार्जशीट दाख़िल नहीं करती, तो उसे डिफॉल्ट बेल का संवैधानिक अधिकार है। साथ ही, पुलिस की जिम्मेदारी है कि वह ईमानदारी और त्वरित कार्रवाई करते हुए उचित समय में जांच पूरी करे।

सूचना के लिए
यदि आप किसी केस की चार्जशीट की स्थिति जानना चाहते हैं, तो संबंधित थाना, कोर्ट या RTI (सूचना का अधिकार) के माध्यम से जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।